धर्म एवं दर्शन >> मीठी कहानियाँ मीठी कहानियाँस्वामी अवधेशानन्द गिरि
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इस पुस्तक की छोटी-छोटी कहानियां अपने अमूल्य संदेश को कब दिलो-दिमाग में उतार देती हैं...
Meethi Kahaniyan - A Hindi Book - by Swami Avdheshanand Giri
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
दवा असरदार हो और कड़वी भी न हो अर्थात् वह मीठी हो तो उसे कौन नहीं खाना चाहेगा ? यदि ऐसी दवा के साथ परहेज की बात न हो तो बात है क्या है—ऐसा नीति शास्त्र में कहा गया है।
जीवन के बारे में जो समझ कथा-कहानियों से मिलती है, वह उपदेशों या दार्शनिक विवेचनाओं से नहीं मिल पाती। यही कारण है कि प्रत्येक धर्म-संप्रदाय में कथा-साहित्य का विस्तार हुआ। इसलिए प्रत्येक वक्ता या लेखक अपने भाषण और आलेख में विभिन्न घटनाओं तथा उदाहरणों का उल्लेख करता है।
इस पुस्तक की छोटी-छोटी कहानियां अपने अमूल्य संदेश को कब दिलो-दिमाग में उतार देती हैं, इसका पता ही नहीं चलता। इन्हें पढ़-समझ और याद करके आप दूसरों को प्रभावित करने में तो सफल होते ही हैं, ये आपको भी जिंदगी के विषय में नए सिरे से सोचने-समझने के लिए विवश करेंगी—ऐसा हमारा विश्वास है।
जीवन के बारे में जो समझ कथा-कहानियों से मिलती है, वह उपदेशों या दार्शनिक विवेचनाओं से नहीं मिल पाती। यही कारण है कि प्रत्येक धर्म-संप्रदाय में कथा-साहित्य का विस्तार हुआ। इसलिए प्रत्येक वक्ता या लेखक अपने भाषण और आलेख में विभिन्न घटनाओं तथा उदाहरणों का उल्लेख करता है।
इस पुस्तक की छोटी-छोटी कहानियां अपने अमूल्य संदेश को कब दिलो-दिमाग में उतार देती हैं, इसका पता ही नहीं चलता। इन्हें पढ़-समझ और याद करके आप दूसरों को प्रभावित करने में तो सफल होते ही हैं, ये आपको भी जिंदगी के विषय में नए सिरे से सोचने-समझने के लिए विवश करेंगी—ऐसा हमारा विश्वास है।
1
सफलता का मंत्र
बहुत पहले की बात है। किसी गांव में रामधुन और हरीराम नामक दो किसान रहते थे। दोनों में गहरी दोस्ती थी। रामधुन के पास थोड़ी बहुत जमीन थी, जबकि हरीराम बहुत बड़े भूखंड का स्वामी था।
एक दिन रामधुन हरीराम के घर गया। वहां उसने देखा कि हरीराम चारपाई पर लेटा था और काफी परेशान नजर आ रहा था। चारपाई के आस-पास और पूरे घर में गंदगी फैली थी। रामधुन को देख हरीराम उठकर खड़ा हो गया। उसने रामधुन को आसन देने के बाद अपने नौकर को आवाज दी। कई बार पुकारने के बाद नौकर आया तो हरीराम ने उसे जलपान लाने को कहा।
रामधुन ने हरीराम से पूछा, ‘‘क्या बात है मित्र, तुम कुछ परेशान से दिख रहे हो। तबीयत तो ठीक है ?’’ हरीराम बोला, ‘‘क्या बताऊं। समझ में नहीं आ रहा है कि हमारी खेती क्यों मारी जा रही है। जरूरत भर अनाज भी पैदा नहीं होता। इस तरह तो कुछ ही दिनों में गुजारा करना भी मुश्किल हो जाएगा।’’
रामधुन ने आश्चर्य से कहा, ‘‘मुझे तो विश्वास ही नहीं हो रहा है। तुम्हारे पास तो इतनी जमीन है, फिर भी तुम्हारा यह हाल कैसे हो गया ? खैर, चिंता की कोई बात नहीं है। तुम मेरे घर चलो। मैं तुम्हें एक साधु के पास ले चलूंगा, जो सफलता का मंत्र जानते हैं। मैंने भी उसी मंत्र के सहारे तरक्की की है।’’
हरीराम रामधुन के साथ उसके घर पहुंचा। वहां उसने देखा कि उसका घर बेहद साफ-सुथरा है, पशु भी बेहद हृष्ट-पुष्ट हैं। रामधुन की पत्नी ने हरीराम का भावभीना स्वागत किया और स्वयं नाश्ता लेकर आई। शाम को हरीराम ने देखा कि रामधुन और उसकी पत्नी ने खुद मिलकर पशुओं को दाना-पानी दिया। वे दोनों पति-पत्नी घर का सारा काम स्वयं कर रहे थे। उनके यहां कोई भी नौकर नहीं था। दूसरे दिन रामधुन ने कहा, ‘‘चलो हरीराम, अब साधु के पास चलते हैं।’’ हरीराम ने कहा, ‘‘नहीं मित्र, अब साधु के पास जाने की कोई आवश्यकता नहीं है। मैं समझ गया कि तुम किस मंत्र की बात कर रहे हो। अब मैं भी तुम्हारी तरह ही मेहनत किया करूंगा। अपने काम के लिए किसी पर निर्भर नहीं रहूंगा।’’ यह कहकर हरीराम घर लौट आया।
एक दिन रामधुन हरीराम के घर गया। वहां उसने देखा कि हरीराम चारपाई पर लेटा था और काफी परेशान नजर आ रहा था। चारपाई के आस-पास और पूरे घर में गंदगी फैली थी। रामधुन को देख हरीराम उठकर खड़ा हो गया। उसने रामधुन को आसन देने के बाद अपने नौकर को आवाज दी। कई बार पुकारने के बाद नौकर आया तो हरीराम ने उसे जलपान लाने को कहा।
रामधुन ने हरीराम से पूछा, ‘‘क्या बात है मित्र, तुम कुछ परेशान से दिख रहे हो। तबीयत तो ठीक है ?’’ हरीराम बोला, ‘‘क्या बताऊं। समझ में नहीं आ रहा है कि हमारी खेती क्यों मारी जा रही है। जरूरत भर अनाज भी पैदा नहीं होता। इस तरह तो कुछ ही दिनों में गुजारा करना भी मुश्किल हो जाएगा।’’
रामधुन ने आश्चर्य से कहा, ‘‘मुझे तो विश्वास ही नहीं हो रहा है। तुम्हारे पास तो इतनी जमीन है, फिर भी तुम्हारा यह हाल कैसे हो गया ? खैर, चिंता की कोई बात नहीं है। तुम मेरे घर चलो। मैं तुम्हें एक साधु के पास ले चलूंगा, जो सफलता का मंत्र जानते हैं। मैंने भी उसी मंत्र के सहारे तरक्की की है।’’
हरीराम रामधुन के साथ उसके घर पहुंचा। वहां उसने देखा कि उसका घर बेहद साफ-सुथरा है, पशु भी बेहद हृष्ट-पुष्ट हैं। रामधुन की पत्नी ने हरीराम का भावभीना स्वागत किया और स्वयं नाश्ता लेकर आई। शाम को हरीराम ने देखा कि रामधुन और उसकी पत्नी ने खुद मिलकर पशुओं को दाना-पानी दिया। वे दोनों पति-पत्नी घर का सारा काम स्वयं कर रहे थे। उनके यहां कोई भी नौकर नहीं था। दूसरे दिन रामधुन ने कहा, ‘‘चलो हरीराम, अब साधु के पास चलते हैं।’’ हरीराम ने कहा, ‘‘नहीं मित्र, अब साधु के पास जाने की कोई आवश्यकता नहीं है। मैं समझ गया कि तुम किस मंत्र की बात कर रहे हो। अब मैं भी तुम्हारी तरह ही मेहनत किया करूंगा। अपने काम के लिए किसी पर निर्भर नहीं रहूंगा।’’ यह कहकर हरीराम घर लौट आया।
2
लालसा पर लगाम
एक बार राजा रघु के राज्य में किसी शिष्य ने अध्ययन समाप्ति पर अपने गुरु से पूछा कि वह उससे कैसी दक्षिणा चाहेंगे। गुरु ने कहा कि उन्हें उसकी कृतज्ञता के अतिरिक्त उससे अन्य कोई दक्षिणा नहीं चाहिए। उन्होंने कहा कि यदि वह उनके द्वारा दी गई शिक्षा के अनुरूप आचरण करके गुरु को सम्मान दिलवाए, तो वही पर्याप्त दक्षिणा है। किंतु शिष्य आग्रह करने लगा कि वह उससे गुरु दक्षिणा अवश्य लें। अपनी किसी भी इच्छा या आवश्यकता का संकेत दें या जो भी धन अथवा भेंट स्वीकार करना चाहते हों, वह बताएं।
उसके ऐसे आग्रह से गुरु कुपित हो गए। उन्हें लगा कि शिष्य को शायद अभिमान हो गया है। इसलिए उससे छुटकारा पाने के लिए उन्होंने एक असंभव धनराशि बताई। गुरु ने कहा, ‘‘तुमने मुझसे सोलह विद्याएं सीखी हैं, तो मेरे लिए सोलह लाख स्वर्ण मुद्राएं लाओ।’’
गुरु की बात समझकर शिष्य धन संग्रह के लिए निकल पड़ा। सबसे पहले वह राजा रघु के पास ही गया और उनसे वचन लिया कि वह उसकी सभी इच्छाएं पूर्ण करेंगे। फिर उसने राजा के समक्ष सोलह लाख स्वर्ण मुद्राओं की मांग रखी। इतनी बड़ी मांग सुनकर रघु व्याकुल हो गए। यद्यपि राजा थे, किंतु उस समय इतनी स्वर्ण मुद्राएं उनके पास भी नहीं थीं। किंतु अपने वचन पर दृढ़ रहने के लिए वे धन के देवता कुबेर के पास गए और वहां से अपरिमित स्वर्ण मुद्राएं ले आए। उन्होंने याचना करने आए उस शिष्य से कहा कि यह सब ले जाओ और अपने गुरु को दे दो। जो शेष बचे उसे अपने पास रख लेना। किंतु शिष्य ने उस अपरिमित ढेर में से उतनी ही स्वर्ण मुद्राएं उठाईं, जितनी उसे दक्षिणा के रूप में देनी थीं, उसने एक भी मुद्रा अधिक नहीं ली। रघु ने उससे बहुत बार कहा कि शेष मुद्राएं भी ले जाओ, मैं तुम्हारे ही लिए लाया हूं। किंतु उस युवक ने अपनी लालसा बढ़ने नहीं दी, वह अपनी बात पर अटल रहा।
उसके ऐसे आग्रह से गुरु कुपित हो गए। उन्हें लगा कि शिष्य को शायद अभिमान हो गया है। इसलिए उससे छुटकारा पाने के लिए उन्होंने एक असंभव धनराशि बताई। गुरु ने कहा, ‘‘तुमने मुझसे सोलह विद्याएं सीखी हैं, तो मेरे लिए सोलह लाख स्वर्ण मुद्राएं लाओ।’’
गुरु की बात समझकर शिष्य धन संग्रह के लिए निकल पड़ा। सबसे पहले वह राजा रघु के पास ही गया और उनसे वचन लिया कि वह उसकी सभी इच्छाएं पूर्ण करेंगे। फिर उसने राजा के समक्ष सोलह लाख स्वर्ण मुद्राओं की मांग रखी। इतनी बड़ी मांग सुनकर रघु व्याकुल हो गए। यद्यपि राजा थे, किंतु उस समय इतनी स्वर्ण मुद्राएं उनके पास भी नहीं थीं। किंतु अपने वचन पर दृढ़ रहने के लिए वे धन के देवता कुबेर के पास गए और वहां से अपरिमित स्वर्ण मुद्राएं ले आए। उन्होंने याचना करने आए उस शिष्य से कहा कि यह सब ले जाओ और अपने गुरु को दे दो। जो शेष बचे उसे अपने पास रख लेना। किंतु शिष्य ने उस अपरिमित ढेर में से उतनी ही स्वर्ण मुद्राएं उठाईं, जितनी उसे दक्षिणा के रूप में देनी थीं, उसने एक भी मुद्रा अधिक नहीं ली। रघु ने उससे बहुत बार कहा कि शेष मुद्राएं भी ले जाओ, मैं तुम्हारे ही लिए लाया हूं। किंतु उस युवक ने अपनी लालसा बढ़ने नहीं दी, वह अपनी बात पर अटल रहा।
3
विश्वास की शक्ति
एक बार देवर्षि नारद जी एक पर्वत से होकर गुजर रहे थे। अचानक उन्होंने देखा कि एक विराट वटवृक्ष के नीचे एक तपस्वी तप कर रहा है। उनके दिव्य प्रभाव से वह जाग गया और उसने उन्हें प्रणाम करके पूछा कि उसे प्रभु के दर्शन कब होंगे। नारद जी ने पहले तो कुछ कहने से इंकार कर दिया, फिर बार-बार आग्रह करने पर बताया कि इस वटवृक्ष पर जितनी छोटी-छोटी टहनियां हैं उतने ही वर्ष उसे और लगेंगे। नारद जी की बात सुनकर तपस्वी बेहद निराश हुआ। उसने सोचा कि इतने वर्ष उसने घर-गृहस्थी में रहकर भक्ति की होती और पुण्य कमाए होते तो शायद उसे ज्यादा फल मिलते। वह बोला, ‘‘मैं बेकार ही तप करने आ गया।’’ नारद जी उसे हैरान-परेशान देखकर वहां से चले गए।
आगे जाकर संयोग से वह एक ऐसे जंगल में पहुँचे जहाँ एक तपस्वी तप कर रहा था। वह एक प्राचीन और अनंत पत्तों से भरे पीपल के वृक्ष के नीचे बैठा हुआ था। नारद जी को देखते ही वह उठ खड़ा हुआ और उसने भी प्रभु के दर्शन में लगने वाले समय के बारे में नारद जी से पूछा, नारद जी ने उसे भी टालना चाहा मगर उसने बार-बार अनुरोध किया तो नारद जी ने कहा कि इस वृक्ष पर जितने पत्ते हैं उतने ही वर्ष अभी और लगेंगे। हाथ जोड़कर खड़े उस तपस्वी ने जैसे ही यह सुना, वह खुशी से झूम उठा और बार-बार यह कह कर नृत्य करने लगा कि प्रभु उसे दर्शन देंगे। उसके रोम-रोम से हर्ष की तरंगें उठ रही थीं। नारद जी मन ही मन सोच रहे थे कि इन दोनों तपस्वियों में कितना अंतर है। एक को अपने तप पर ही संदेह है। वह मोह से अभी तक उबर नहीं सका और दूसरे को ईश्वर पर इतना विश्वास है कि वह वर्षों प्रतीक्षा के लिए तैयार है।’’
तभी वहां अचानक अलौकिक प्रकाश फैल गया और प्रभु प्रकट होकर बोले, ‘‘वत्स ! नारद ने जो कुछ बताया वह सही था पर तुम्हारी श्रद्धा और विश्वास में इतनी गहराई है कि मुझे अभी और यहीं प्रकट होना पड़ा।’’
आगे जाकर संयोग से वह एक ऐसे जंगल में पहुँचे जहाँ एक तपस्वी तप कर रहा था। वह एक प्राचीन और अनंत पत्तों से भरे पीपल के वृक्ष के नीचे बैठा हुआ था। नारद जी को देखते ही वह उठ खड़ा हुआ और उसने भी प्रभु के दर्शन में लगने वाले समय के बारे में नारद जी से पूछा, नारद जी ने उसे भी टालना चाहा मगर उसने बार-बार अनुरोध किया तो नारद जी ने कहा कि इस वृक्ष पर जितने पत्ते हैं उतने ही वर्ष अभी और लगेंगे। हाथ जोड़कर खड़े उस तपस्वी ने जैसे ही यह सुना, वह खुशी से झूम उठा और बार-बार यह कह कर नृत्य करने लगा कि प्रभु उसे दर्शन देंगे। उसके रोम-रोम से हर्ष की तरंगें उठ रही थीं। नारद जी मन ही मन सोच रहे थे कि इन दोनों तपस्वियों में कितना अंतर है। एक को अपने तप पर ही संदेह है। वह मोह से अभी तक उबर नहीं सका और दूसरे को ईश्वर पर इतना विश्वास है कि वह वर्षों प्रतीक्षा के लिए तैयार है।’’
तभी वहां अचानक अलौकिक प्रकाश फैल गया और प्रभु प्रकट होकर बोले, ‘‘वत्स ! नारद ने जो कुछ बताया वह सही था पर तुम्हारी श्रद्धा और विश्वास में इतनी गहराई है कि मुझे अभी और यहीं प्रकट होना पड़ा।’’
4
परमात्मा की प्राप्ति
एक दिन एक सेठ ने सूफी संत शेख फरीद से कहा, ‘‘मैं घंटों पूजा-पाठ करता हूं, लाखों रुपये दान-पुण्य में खर्च करता हूं। गरीबों को खाना खिलाता हूँ, फिर भी मुझे भगवान के दर्शन नहीं होते। आप मेरा मार्ग दर्शन कीजिए।’’
फरीद ने कहा, ‘‘यह तो बहुत आसान है। आओ मेरे साथ। मौका मिला तो आज ही भगवान के दर्शन करा दूंगा।’’
शेख फरीद उस सेठ को नदी तट पर ले गए, फिर उन्होंने सेठ को जल में डुबकी लगाने को कहा। जैसे ही सेठ ने जल में डुबकी लगाई फरीद सेठ के ऊपर सवार हो गए। संत फरीद काफी तंदुरुस्त थे। उनका वजन सेठ संभाल नहीं पा रहा था। वह बाहर निकलने की कोशिश करता लेकिन और अधिक डूब जाता था। सेठ तड़पने लगा। उसने सोचा कि अब जान नहीं बचेगी। चले थे भगवान के दर्शन करने अब यह जिंदगी भी गई। सेठ था तो कमजोर, लेकिन मौत नजदीक देख कर उसने गजब का जोर लगाया और एक झटके में ही ऊपर आ गया। उसने फरीद से कहा, ‘‘तू फकीर नहीं कसाई है। तू मुझे भगवान के दर्शन कराने लाया था या मारने ?’’
फरीद ने पूछा, ‘‘यह बताओ कि जब मैं तुम्हें पानी में दबा रहा था तो क्या हुआ ?’’ सेठ बोला, ‘‘होना क्या था। जान निकलने लगी थी। पहले बहुत विचार उठे मन में कि हे भगवान ! कैसे बचूं, कैसे निकलूं बाहर। जब प्रयत्न सफल नहीं हुए तो धीरे-धीरे विचार भी खो गए। फिर तो एक ही सवाल आया किसी तरह बाहर निकल जाऊं। विचार खो जाने के बाद बस, बाहर निकलने का ही भाव रह गया। फरीद ने कहा, ‘‘परमात्मा तक पहुंचने का यह अंतिम मार्ग ही सबसे सरल है। जिस दिन केवल परमात्मा को पाने का भाव बचा रह जाएगा और विचार तथा प्रयास खत्म हो जाएंगे, उसी दिन ईश्वर तुम्हें दर्शन देंगे। आदमी केवल सोचता है, विचार करता है, सवाल करता है। लेकिन उसके भीतर भाव उत्पन्न नहीं होता, इसलिए उसे संपूर्ण सफलता नहीं मिलती।’’ सेठ ने फरीद का भाव अच्छी तरह समझ लिया।
फरीद ने कहा, ‘‘यह तो बहुत आसान है। आओ मेरे साथ। मौका मिला तो आज ही भगवान के दर्शन करा दूंगा।’’
शेख फरीद उस सेठ को नदी तट पर ले गए, फिर उन्होंने सेठ को जल में डुबकी लगाने को कहा। जैसे ही सेठ ने जल में डुबकी लगाई फरीद सेठ के ऊपर सवार हो गए। संत फरीद काफी तंदुरुस्त थे। उनका वजन सेठ संभाल नहीं पा रहा था। वह बाहर निकलने की कोशिश करता लेकिन और अधिक डूब जाता था। सेठ तड़पने लगा। उसने सोचा कि अब जान नहीं बचेगी। चले थे भगवान के दर्शन करने अब यह जिंदगी भी गई। सेठ था तो कमजोर, लेकिन मौत नजदीक देख कर उसने गजब का जोर लगाया और एक झटके में ही ऊपर आ गया। उसने फरीद से कहा, ‘‘तू फकीर नहीं कसाई है। तू मुझे भगवान के दर्शन कराने लाया था या मारने ?’’
फरीद ने पूछा, ‘‘यह बताओ कि जब मैं तुम्हें पानी में दबा रहा था तो क्या हुआ ?’’ सेठ बोला, ‘‘होना क्या था। जान निकलने लगी थी। पहले बहुत विचार उठे मन में कि हे भगवान ! कैसे बचूं, कैसे निकलूं बाहर। जब प्रयत्न सफल नहीं हुए तो धीरे-धीरे विचार भी खो गए। फिर तो एक ही सवाल आया किसी तरह बाहर निकल जाऊं। विचार खो जाने के बाद बस, बाहर निकलने का ही भाव रह गया। फरीद ने कहा, ‘‘परमात्मा तक पहुंचने का यह अंतिम मार्ग ही सबसे सरल है। जिस दिन केवल परमात्मा को पाने का भाव बचा रह जाएगा और विचार तथा प्रयास खत्म हो जाएंगे, उसी दिन ईश्वर तुम्हें दर्शन देंगे। आदमी केवल सोचता है, विचार करता है, सवाल करता है। लेकिन उसके भीतर भाव उत्पन्न नहीं होता, इसलिए उसे संपूर्ण सफलता नहीं मिलती।’’ सेठ ने फरीद का भाव अच्छी तरह समझ लिया।
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